निर्भयता और विनम्रता ही कथा का फलादेश
कथा के द्वितीय दिवस के प्रमुख अंश–
द्वितीय दिवस की कथा के आरंभ में पूज्य आचार्य श्री जी ने कहा किअन्तःकरण की निर्भयता और विनम्रता ही कथा का फलादेश है।समूची प्रकृति को जीतने का एकमात्र साधन विनयता है। उपासना में साधक और साध्य का मन एक हो जाता है।
परीक्षित उपाख्यान में पूज्य आचार्य श्री कहते हैं कि परमात्मा ही गुरु के रूप में जीवन मे प्रकट होता है। अच्छे मार्गदर्शक या तो पुण्य से मिलते हैं या भगवत्कृपा से !! जिस दिन आप मूल प्रकृति में ,स्वभाव में लौटेंगे , देहयात्रा से विमुख होंगे अंतर्मुखी होंगे तो आप अपने भीतर विद्यमान परमात्मा से साक्षात्कार कर लेंगे ,तीर्थ से मिल लेगें।
पूज्य श्री कहते हैं कि विपत्ति काल में पूर्वजों का,महापुरुषों का और ईश्वर का स्मरण करना चाहिए। श्रृंगी ऋषि के पुत्र से श्रापित होने पर राजा परीक्षित स्मरण करने लगे कि गर्भ में मुझे मारने के लिए ब्रह्मास्त्र आया था । हे प्रभु ! उस समय आपने नारायण बनकर शस्त्र से हमारी रक्षा की थी। आज मुझसे किसी तपस्वी ऋषि का अपमान हुआ है, इसलिए शास्त्र से रक्षा के लिए आप गुरु बनकर जीवन में आइये। परीक्षित की प्रार्थना करने पर जैसे प्राची से सूर्य का उदय होता है वैसे ही शुकदेव मुनि प्रकट हो गए। पूज्यश्री कहते हैं कि अंतःकरण की निर्भयता सत्संग का फलादेश है। इस प्रकार परीक्षित के प्रश्न और शुकदेव मुनि द्वारा भगवान के गुणानुवादों के वर्णन से राजा सहज हो गए।
तदनन्तर पूज्य आचार्य श्री जी ने सृष्टि के आरंभ की कथा सुनाई ! पूज्यश्री कहते हैं कि कल्पांत में नारायण और उनके नाभि कमल से ब्रह्मा जी का जन्म हुआ। ब्रह्मा जी से मनु शतरूपा हुए और वही से मैथुनी सृष्टि का प्रारम्भ हुआ।