समाज मे जितने भी सामाजिक-राजनीति परिवर्तन आये है उंसका प्रभाव अन्य संस्थाओं सहित विश्विद्यालयो पर भी पड़ा
(संवाददाता Uk Sahara)
अभी तक समाज मे जितने भी सामाजिक-राजनीति परिवर्तन आये है उंसका प्रभाव अन्य संस्थाओं सहित विश्विद्यालयो पर भी पड़ा है।उपभोक्तावाद,बाजारीकरण,उदारीकरण, आधुनिकीकरण नही है बल्कि गंवारपना है।
उपभोक्तावाद के कारण,यदि रेडियो हो गया तब टीवी हो जाये,टीवी हो गया तब स्कूटर हो जाये,स्कूटर हो गया तब कार हो जाये। अर्थात समाज का हर अपने से ठीक ऊँचे वर्ग में घुसना चाहता है। इसका मुख्य कारण समाज का प्रदर्शन प्रभाव,दिखावा,लालच-लोभ का भाव है। क्योंकि मनुष्य मूल्यों से अधिक भौतिक बस्तुओं को महत्व देने लगता है।इसके लिए कोई कीमत देनी पड़े, अन्तरात्मा की आवाज दबानी पड़े वह करता है। बाई हुक,बाई कुक।
समाज मे यह प्रक्रिया चलती रहती है। पैदल वाला साइकिल वाला,साइकिल वाला मोटरसाइकिल वाला बनना चाहता है।
आधुनिकीकरण केवल उधोग और भौतिक बस्तुओं की आपूर्ति ही नही दिए है बल्कि समस्याएं भी दिए है।
उपभोक्तावाद (यानि गंवारपन) से संस्थाओं का पतन हुआ है।विशेशरूप से जो नैतिक पतन हुआ है वह शैक्षिक संस्थाओं के पतन के रूप में दिखता है।
आधुनिकीकरण के कारण मशीन से 100 व्यक्तियो का कारण 1 व्यक्ति से लिया जाने लगा। इसके प्रभाव से 99 बेकार,बेरोजगार होने लगें। इसके पूर्व वही कार्य 100 व्यक्ति करते है और समाज का अपने अंग मानते थे,उनके मन मे था कि समाज मे हमारा भी योगदान है,जो इनके स्वाभिमान को बचा कर रखता था। लेकिन आधुनीकरण ने लोगो के स्वाभिमान को नष्ट कर दिया है। लोगो के स्वाभिमान नष्ट होने पर नैतिक मूल्यों का पतन हो गया है।
. स्किल ना होना, स्किल को नकार देना, स्किल होते हुए भी बेरोजगार हो जाना व्यक्ति के स्वाभिमान को ख़त्म कर देता है।……….रोजगार में लगा व्यक्ति अपने को समाज का हिस्सा समझता है कि हमारा भी कुछ योगदान है समाज/राष्ट्र में।… बेरोजगारी बहुजन के स्वाभिमान को भी ख़त्म कर देती है।
यह चक्र लंबे समय तक चलता रहता है किंतु सम्भव है कुछ सामाजिक- राजनीतिक बदलाव आए और इसके बाद परिस्थितियां बदले। क्योकि जीवन नहीं मरता, मृत्यु ही मरती रहती है।जीतता जीवन ही है, मृत्यु ही हारती है.
जीवन तो चलेगा, और चलेगा तो नीचे ही नीचे सिर्फ नहीं चलेगा, चलेगा तो तो उठेगा।
तो क्या ऊपर उठने की शुरुआत हो चुकी है!
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